देहरादून- 21 जून 2002: भारत में गंगा के मैदान का एक अनूठा उत्पाद, सुगंधित (बासमती) चावल अपनी खुशबूदार क्वालिटी और महंगा होने के लिए जाना जाता है। मोटे चावल की तुलना में इसकी कीमत लगभग तीन गुना अधिक होती है। भारत में चावल की खेती के लिए इस्तेमाल होने वाली लगभग 20% भूमि पर सुगंधित चावल उगाए जाते हैं। कुल चावल का 90% से अधिक हिस्सा उत्तर पश्चिमी राज्यों में उत्पादित होता है। सुगंधित चावल की कुल वैश्विक आपूर्ति में भारत लगभग 65% योगदान करता है। तेजी से घटता जलस्तर ,खाद्यान्न की बढ़ती मांग, घटती उत्पादकता और आर्थिक लाभ में भारी कमी की वजह से भारत में बासमती चावल के उत्पादन में स्थिरता एक अहम चिंता का विषय बन गई है।
श्री आर सबरीनाथन, ग्लोबल राइस एग्रोनोमिस्ट, नेटाफिम लिमिटेड ने कहा , “ परंपरागत तौर पर, चावल एक पानी की भरपूर खपत करने वाली फसल है । तीन प्राथमिक उद्देश्यों के लिए चावल की खेती में पानी की जरूरत होती है – भूमि को तैयार करने के दौरान, निरंतर रिसाव और उपज का पोषण के दौरान। बासमती चावल उगाने वाले किसान को खेत को लगातार पानी से लबालब रखना पड़ता है, जिसकी वजह से अन्य फसलों की तुलना में चावल की खेती के दौरान पानी का नुकसान (80% तक) होता है। इस फसल के लिए पानी के मद में अधिक निवेश, श्रम, फसल से पहले की तैयारी और उर्वरकों की जरूरत होती है। इन निवेशों के बावजूद, पानी का सही तरीके से इस्तेमाल न होने के कारण, फसल की उपज कम होती है, और फसल की गुणवत्ता कम होने से किसानों के मुनाफे पर असर पड़ता है।“
विश्व स्तर पर, भारत बासमती और गैर-बासमती चावल के शीर्ष निर्यातकों में से एक है। आंकड़ों के अनुसार, 2020-21 में, भारत का चावल निर्यात (बासमती और गैर-बासमती) 87 प्रतिशत बढ़कर 17.72 मिलियन टन (एमटी) हो गया, जो 2019-20 में 9.49 मीट्रिक टन था। मूल्य प्राप्ति ( वैल्यू रियलाइजेशन ) के मामले में, भारत का चावल निर्यात 2019-20 में 6397 मिलियन अमरीकी डालर से 38 प्रतिशत बढ़कर 2020-21 में 8815 मिलियन अमरीकी डालर हो गया। 2020-21 में बासमती चावल के निर्यात की मात्रा के मामले में, शीर्ष दस देश – सऊदी अरब, ईरान, इराक, यमन, संयुक्त अरब अमीरात, संयुक्त राज्य अमेरिका, कुवैत, यूनाइटेड किंगडम, कतर और ओमान थे जिनके पास कुल शिपमेंट का करीब 80 प्रतिशत तक हिस्सा है।
किसानों की आय में लगातार बढ़ोतरी हासिल करने और सुगंधित चावल के मामले में वैश्विक निर्यात बाजार में अपना दबदबा कायम रखने के लिए, कृषि के क्षेत्र में वैज्ञानिक और जल का सही तरीके से इस्तेमाल सुनिश्चित करना और पानी की बर्बादी को रोकना सबसे अहम है। गंगा का मैदान (आईजीपी) भारत का पर्यावरणीय रूप से अतिसंवेदनशील, सांप्रदायिक रूप से अहम और आर्थिक रूप से सामरिक क्षेत्र है जहाँ जलवायु परिवर्तन से परिदृश्य, भूजल और धरती की उर्वरता को खतरा है। जमीन को तैयार करने की अधिक लागत, बाढ़ के कारण पानी की बर्बादी और पारंपरिक तकनीकों का कारगर न होना आदि चावल उत्पादकों की कठिनाइयों को बढ़ा देते हैं। इन परेशानियों के ध्यान में रखते हुए, किसानों को पानी के उपयोग के लिए कुशल वैकल्पिक तरीकों पर फोकस करना चाहिए और चावल की खेती के लिए ड्रिप इरिगेशन के इस्तेमाल को करना चाहिए। वर्तमान में, भारत में चावल उत्पादन के मामले में लगभग 500 हेक्टेयर भूमि पर ड्रिप इरिगेशन होती है। निस्संदेह, चावल की खेती में कृषि के तौर-तरीकों का आत्मनिरीक्षण और उनको ठीक करना अनिवार्य हो जाता है तथा चावल की खेती में इन सुधारों को अपनाते हुए आगे जाने की जरूरत है।
ड्रिप इरिगेशन फसल को पानी की बिल्कुल सही आपूर्ति के माध्यम से पानी के उपयोग को कम करती है। इसलिए, किसानों को परंपरागत रूप से एक किलो चावल उगाने में 5000 लीटर पानी की जरूरत होती थी, अब उन्हें केवल 1500-1600 लीटर की जरूरत है। वे कम पानी में बड़े पैमाने पर अधिक फसल की उपज प्राप्त करते हैं। ड्रिप इरिगेशन से किसान फसल चक्र में चावल के बाद किसी भी वांछित निकट दूरी वाली फसल का चयन कर सकते हैं। वे चावल की खेती के बाद कम आय वाली फसलों से उच्च आय वाली फसलों में भी शिफ्ट हो सकते हैं। धान की खेती में चावल की जड़ें जलमग्न रहती हैं। वे हेवी मेटल्स का उपभोग करती हैं और फसल में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ाती हैं, जिससे फसल की मार्केट वैल्यू कम हो जाती है। हालांकि, ड्रिप इरिगेशन से आर्सेनिक को लगभग 90% तक कम करने में मदद मिलती है और इसके परिणामस्वरूप विपणन योग्य फसल वृद्धि के साथ साथ उच्च गुणवत्ता की फसल ली जा सकती है, श्री आर सबरीनाथन, ग्लोबल राइस एग्रोनोमिस्ट, नेटाफिम लिमिटेड ने कहा ।
किसान ड्रिप इरिगेशन के जरिए लेबर कॉस्ट को कम कर सकता है, किसान टपक सिंचाई का उपयोग करके मजदूरी के खर्चों में भारी कटौती कर सकता है । इसी के साथ कम पानी में ज्यादा क्षेत्र सिंचाई के तहत लाया जा सकता है, वाटर एफिशिएंसी बढ़ाई जा सकती है, फसल की उपज को बढ़ा सकते है और फसल की गुणवत्ता में सुधार लाया जा सकता है। ये सभी कारक उपज की मद में लगने वाले निवेश को कम करते हैं और मुनाफा बढ़ाते हैं। इसके अलावा, धान की खेती विश्व स्तर पर लगभग 10% मीथेन गैस उत्सर्जन का उत्पादन करती है। भले ही धान की खेती करने वाले सिर्फ 10% धान की खेती करने वाले ड्रिप इरिगेशन पर अपग्रेड हों, लेकिन दुनिया इससे 40 मिलियन कारों के बराबर कम मीथेन उत्सर्जन करने में सक्षम होगी। ड्रिप इरिगेशन पानी और उर्वरक के नियंत्रित उपयोग में सहायता प्रदान करता है जिससे फसलों की उत्पादकता में 50% की बढ़ोतरी हो सकती है । इन सभी उपायों से किसानों के आय के स्तर में 40% से अधिक बढ़ोतरी होने की गुंजाईश है ।
किसानों में इस सिंचाई को लेकर जागरूकता पैदा करना और संभावित राज्यों में छोटे और सीमांत किसानों की प्रैक्टिकल ट्रेनिंग चावल की खेती में ड्रिप इरिगेशन की सफलता का आधार है। वर्तमान ड्रिप-इरिगेशन कार्यक्रमों का अध्ययन करते हुए, भारतीय चावल उत्पादकों को सही और त्वरित गति से टपक सिंचाई तकनीक को बड़े पैमाने पर अपनाना चाहिए। उपयुक्त तकनीक को अपनाने की राह पर चलते हुए किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा।