“मृतक मनुष्य की बर्सी मनाने पर महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी का उपदेश” -मनमोहन कुमार आर्य

Shivdev Arya

वर्तमान समय में हिन्दू समाज में किसी पारिवारिक सदस्य की मृत्यु होने पर तेरहवीं व बर्सी आदि की अनेक प्रथायें प्रचलित हैं। परिवार के वृद्ध व युवा सदस्य की मृत्यु होने पर पूर्व निर्धारित विवाह आदि अनेक कार्यक्रमों को रोक दिया जाता है। ऐसी भी प्रथा है कि तेरहवीं वा मृतक की मृत्यु के बाद उसका एक वर्ष पूरा होने पर बर्सी की पूजा व परम्परानुसार कर्मकाण्ड किये जाने तक परिवार में किसी सदस्य का विवाह आदि कार्य सम्पन्न नहीं किये व कराये जा सकते। हिन्दू समाज के कुछ समूहों ने इसमें कुछ संशोधन भी किया है। कुछ लोग तेरहवीं न कर चौथा कर सभी कार्यों को आरम्भ कर देते हैं तो कुछ पुरानी परम्पराओं का ही दृढता से पालन करते हैं। इससे मृतक व उनसे जुड़े परिवारों को अनेक प्रकार की असुविधायें होती हैं। स्वाध्याय करते हुए आज हमारे सम्मुख वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के महात्मा दयानन्द वानप्रस्थी जी का ‘‘बर्सी मनाना” विषय पर एक लेख सम्मुख आया। हमें लगा कि हमें महात्मा दयानन्द वानप्रस्थी जी के इन विचारों को प्रसारित करना चाहिये जिससे सभी बन्धुओं का मार्गदर्शन हो सके। इसी दृष्टि से महात्मा जी का यह लेख प्रस्तुत है। यह लेख महात्मा जी के लेखों की पुस्तक ‘उपदेश-माला’ से प्रस्तुत कर रहे हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन श्री शशिमुनि आर्य जी के सम्पादन, प्रकाशन एवं प्रबन्धन में वैदिक भक्ति साधन आश्रम, आर्यनगर, रोहतक से सन 2018 में हुआ है। महात्मा जी की लेखनी से लिखा लेख प्रस्तुत हैं।

                महर्षि दयानन्द अपनी अमर कृति संस्कार विधि में लिखते हैं कि अन्त्येष्टि संस्कार के उपरान्त जीव का कोई अन्य संस्कार नहीं करना चाहिए फिर आर्यों में (मृतक पारिवारिक सदस्य की एक वर्ष या कुछ समय पूर्व) बर्सी मनाना महर्षि के आदेश का उल्लंघन नहीं तो और क्या है? हर व्यक्ति में यह एक जिज्ञासा है कि ऐसा क्यों (किया जाता है)?

                प्रिय बन्धुओं व पूज्य माताओ! संस्कार किसे कहते हैं पहले इस बात को समझें। मोटी भाषा में संस्कार का अर्थ है कि ऐसा कोई शुभ कर्म जिससे जीव का सुधार हो। (मनुष्य व उसमें निहित जीव को) शारीरिक, सामाजिक, आध्यात्मिक उन्नति की ओर परिवर्तित करना है। ये सब सम्भव है गर्भाधान से लेकर संन्यास प्रवेश संस्कार तक। अन्त्येष्टि संस्कार में तो (मृतक मनुष्य की) पार्थिव देह शव से मुक्ति पाना है कि इससे अन्य जीवों का अहित न हो। इसलिए इसे संस्कार कोटि में रख लिया गया वरना जीवात्मा तो न जाने कहां जा पहुंचा होगा?

                इन संस्कारों द्वारा जीवात्मा का कल्याण उसके ज्ञानयुक्त क्रियाओं से होता है। परन्तु माता-पिता, आचार्य, धर्मपत्नी व पति और परमेश्वर का सहयोग जरूरी है क्योंकि यह मुख्य कलाकार हैं जिनका बड़ा दूर तक असर पड़ता है। बाकी सब रिश्तेदार व मनुष्य का व्यवसाय भी असर डालते हैं परन्तु इनके बाद और इन से कम। 

                इन संस्कारों का प्रभाव क्या पड़ता है? जबकि पिछले जन्मों के संस्कार चिपके रहते हैं। एक ही माता-पिता के बच्चे अपने पूर्वजन्मों के कर्म व संस्कारों से वशीभूत भिन्न-भिन्न प्रकृति के उत्पन्न होते हैं। उनमें परिवर्तन प्रायः नहीं हुआ करता। इसे उदाहरण से समझ सकेंगे।

                जैसे एक साधारण आम का पेड़ है या गुलाब का पौधा, एक योग्य माली उनमें कलम लगाता है, पैबन्द लगाता है। वह रहेंगे तो आम और गुलाब पर उन में इतनी तबदीली अवश्य आएगी कि एक बढ़िया किस्म के बन जायेंगे। ठीक इसी तरह जिस जीव के अपने जैसे-जैसे संस्कार हों उन्हें साथ लावेगा। परन्तु यदि धर्मात्मा माता-पिता के घर जन्म हुआ और योग्य गुरु की छत्रछाया मिल गई तो वही संस्कार कल्याण उन्नति का साधन बन जाते हैं। इस प्रकार जीव की लम्बी यात्रा सुगमता से शीघ्र पूरी हो जाती है।

                अब चूंकि जीवात्मा प्रस्थान कर चुका है और उसका संस्कार होना सम्भव नहीं, तो बर्सी का मनाना संस्कार नहीं। बर्सी का मनाना तो केवल अपने विगत पूर्वजों की यादगार मनाना है तथा अपना आत्मनिरीक्षण करना है कि हम उनके कितनी हद तक अनुयायी हैं। जिन्होंने अपनी पारिवारिक परम्पराओं (Family traditions) को भुला दिया वह संसार से मिट गए। जिन्होंने उन्हें जीवित रखा वह आज उनके चिन्ह बाकी हैं। उनका अस्तित्व कायम है। यही आवश्यकता अपने शुद्ध रूप में इतिहास को कायम रखने की है। जिस देश या जाति की संस्कृति को मिटाना हो उसके इतिहास को मिटा दो या उसे बिगाड़ दो कि वह स्वयं उससे घृणा करने लग जाएं। मुसलमानों ने अधिक समय तक तलवार से राज्य किया परन्तु उनके जमाने में आर्य संस्कृति नहीं मिटी। परन्तु अंग्रेजों की कुचालों से यह मिटती प्रतीत होती है। हमारे देश के लोग अपनी सभ्यता, रीति-रिवाजों को हीन भावना से देखते हैं। मिलावट को निकाल करके देखें तो शेष आर्य सभ्यता संस्कार में सर्वोच्च है इसमें कोई सन्देह नहीं। उसे कायम रखने के लिए यह बर्सियां, त्यौहार तथा संस्कार बहुत जरूरी है। इस निमित्त से यज्ञ-दान तथा संगतिकरण हो जाता है। इस यज्ञ-दान, ब्रह्म-भोज इत्यादि का फल उन विगत जीवों (मृतक मनुष्यों) को कुछ नहीं मिलेगा, यह पक्की बात है। इस शुभ कार्य का श्रेय-फल सम्मान तो यहां के करने वालों को ही मिलेगा। परन्तु उन दिवंगत आत्माओं को यदि वह मुक्त हो चुकी हैं अथवा अभी जन्म धारण नहीं किया है तो वह इस शुभ कार्य के सूक्ष्म फल संभवत् प्राप्त कर लेती है। जैसे कि मेरा पुत्र अपनी परीक्षा में बहुत अच्छी स्थिति को प्राप्त करे तो मुझे प्रसन्न्ता होती है। जबकि मुझे कुछ मिलने वाला नहीं। इसी तरह हमारे शुभ कर्मों, यज्ञों द्वारा उन्हें प्रसन्नता मिलती होगी।

                विज्ञान ने सिद्ध किया है कि प्रकाश शब्द की लहरें विश्व में चलती हैं। इसी तरह विचारों की लहरें चलती हैं तभी तो ब्राह्ममुहूर्त में भजन-ध्यान के लिए गुरुजन आदेश देते हैं। अतः सद्विचारों की तरंगें भी विश्व मण्डल में चलती होंगी। यदि यह विचारों की तरंगें प्रभु पूजन और विश्व कल्याण के लिए संलग्न होंगी तो विगत जीव जहां भी विश्व में हों, उन्हें प्रसन्नता प्राप्त होगी कि पूर्वजन्म के उसके अनुयायी उसके चलाये कार्य को बढ़ा रहे हैं। यह ध्यान देने की बात है कि दाहकर्म अस्थि संचय के अतिरिक्त कोई कर्तव्य नहीं। यदि सम्पन्न हो तो अपने जीते जी अथवा मरे पीछे उनके सम्बन्धी वेदविद्या, वेदोक्त धर्मप्रसार, अनाथ-पालन, धर्म उपदेश में धन लगावें। यह बर्सी के दिन करें।

                बर्सी में प्रसाद बांटना, रोटी खिलाना, लगर चलाना, यह तो स्थूल कर्म हैं जो स्थूल जगत् तक रह जावेंगे। सूक्ष्म लोक में रहने वालों को सूक्ष्म विचार शिवसंकल्प, प्रभु प्रार्थनाएं प्रसन्नता देती हैं। इसलिए हम निष्काम वृत्ति से बर्सी के दिन यज्ञ, सत्संग, वेदपाठ, दान इत्यादि करें जिससे कि बुजुर्गों की यदि उनके यश कर्म जिन्दा रहें और हमें भी पुनः स्मृति उनके पदचिन्हों पर चलने की कराया करें। यदि विगत जीव के कर्म अच्छे नहीं थे तो हम प्रभु से उन्हें सद्विचार प्रदान करने की प्रार्थना करें तथा अपने अन्दर देखें कि वह पतनकारी कर्म स्वभाव हमारे जीवन में न रहने पावें।

                हमने महात्मा दयानन्द वानप्रस्थ जी के विचारों को इस लेख में उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। सभी मनुष्यों को अपने जीवन में पंचमहायज्ञों का यथाशक्ति अनुष्ठान करना चाहिये। इसके साथ ही उन्हें योगाभ्यास अर्थात् योग, आसन, प्राणायाम, ध्यान, अग्निहोत्र, स्वाध्याय आदि में भी प्रवृत्त रहना चाहिये। पूर्वजों के उपकारों को भी यथावसर स्मरण करना चाहिये। किसी को भी किसी प्रकार का कोई अवैदिक अनुष्ठान नहीं करना चाहिये। हमें ऋषि दयानन्द जी के संस्कार विधि में लिखे शब्दों पर ध्यान देना चाहिये जिसमें कहा गया है कि मृतक मनुष्य की अन्त्येष्टि करने के बाद उसके प्रति कोई कर्म, संस्कार व विधि करना शेष नहीं रहता है। अन्त्येष्टि क्रिया अन्तिम क्रिया वा किरया है। इसके बाद शमशान से घर आकर अग्निहोत्र यज्ञ करना चाहिये। परिवार में दैनिक यज्ञ होना चाहिये। समय समय पर हम अपने मृतक सदस्यों व पूर्वजों के उपकारों व श्रेष्ठ कार्यों को स्मरण कर उनके प्रति कृतज्ञ बने रहे और उनकी स्मृति में परोपकार आदि कार्य यथाशक्ति करते रहे। हमारी दिनचर्या में अन्त्येष्टि क्रिया के बाद वर्तमान की तेरहवीं व अन्य विधि विधानों के अनुसार अज्ञानयुक्त किसी कर्म व कार्य का समावेश नहीं होना चाहिये। ऐसा कोई कार्य नही करना चाहिये जिससे परिवार के सदस्यों व इष्ट मित्रों को कोई असुविधा हो। प्रभु का ध्यान व चिन्तन एवं स्वाध्याय करते हुए सब कार्य सामान्यरूप से करते रहने चाहियें। ऐसा करने से ही हमारा समाज उत्तम समाज होगा और किसी मनुष्य को किसी प्रकार की असुविधा व कष्ट नहीं होगा।

                -मनमोहन कुमार आर्य, पताः 196 चुक्खूवाला-2, देहरादून-248001

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