देहरादून-29 अप्रैल 2022- विरासत आर्ट एंड हेरिटेज फेस्टिवल 2022 के पंद्रहवें दिन एवं समापन कार्यक्रम की शुरुआत डॉ. बी. आर. अंबेडकर स्टेडियम (कौलागढ़ रोड) देहरादून में दीप प्रज्वलन के साथ हुआ एवं लायक राम जौनसार बावर संस्कृति रंगमंच के द्वारा जौनसार जनजाति के प्रसिद्ध नृत्य तांडी, हारूल एवं झेंता जैसे लोक गीतों की प्रस्तुति नृत्य के साथ दिया गया। इस प्रस्तुति में कलाकार जौनसार के वेशभूषा एवं पोशाक में दिखें। इस समूह में 20 कलाकारों ने एक साथ अपनी प्रस्तुतियां दी और उन्होंने उत्तराखंड के पारंपरिक हाकलियात सांस्कृतिक एवं वाद्य यंत्र रणसिंधा, ढोल एवं दमाऊ का उपयोग किया। वही आखरी प्रस्तुति में उन्होंने जौनसार के प्रसिद्ध हाथी नृत्य का भी मंचन किया। हाथी नृत्य जो दिवाली उत्सव के दौरान मनाया जाता है और यह आमतौर पर पारंपरिक दिवाली के एक महीने के बाद पहाड़ों में लोग मनाते है क्योंकि ग्रामीण उन दिनों कटाई में व्यस्त होते हैं। लायक राम जौनसार बावर संस्कृति रंगमंच के प्रस्तुति में लायक राम दलनायक, मायाराम ढोलवादक और सन्नी दयाल लोकगायक थें।
सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अन्य प्रस्तुतियों में भारत के मशहूर ग़ज़ल गायक तलत अज़ीज़ ने अपनी प्रस्तुति दी। उन्होंने स्व जगजीत जी को याद किया एवं ’कैसे सुकून पाउ’ ग़ज़ल प्रस्तुत की। अनकी अगली गजल आज जाने कि जिद न करो, उसके बाद उन्होंने यूॅ ही पहलू में बैठे रहो, कभी ख्वाब में या ख्याल में, और खूब सूरत हैं आखें तेरी रात जागना छोड़ दे पर अपनी प्रस्तुति दी।
उनके साथ सा रे गा मा फेम जीतू शंकर तबले पर थे, गिटार रतन प्रसन्ना ने बजाया, कीबोर्ड अजय सोनी ने, अतुल शंकर ने बांसुरी बजाई जबकि हारमोनियम खुद तलत अजीज साहब ने बजाया।
बताते चले कि तलत अजी़ज़ का जन्म हैदराबाद में संगीत और उर्दू साहित्य के प्रेमियों के परिवार में हुआ था। तलत अज़ीज़ ने संगीत में अपना प्रारंभिक प्रशिक्षण किराना घराने से लिया एवं उन्हें मुख्य रूप से उस्ताद समद खान और फिर उस्ताद फैय्याज अहमद खान से प्रशिक्षण प्राप्त किया। प्रारंभिक प्रशिक्षण के बाद, अजीज ने गजल वादक मेहदी हसन से संगीत सीखा। उन्होंने विदेशों में भी अपनी प्रस्तुतियां दी है जिसमें 1986 में अमेरिका और कनाडा के एक संगीत कार्यक्रम में उन्होंने भारत का प्रतिनिघत्व किया और कार्यक्रमों में अपना मंच साझा कर अपनी प्रस्तुति दी।
उन्होंने अपना पहला एल्बम फरवरी 1980 में जगजीत सिंह के साथ रिलीज़ किया। जगजीत सिंह ने इस एल्बम की रचना की थी जिसका शीर्षक ’जगजीत सिंह प्रस्तुत करते है तलत अजीज को’ था। उसके बाद 1981 में खय्याम साहब के संगीत निर्देशक ने तलत अजीज को क्लासिक फिल्म उमराव जान में प्रसिद्ध ग़ज़ल ज़िंदगी जब भी पेश किया और इसके बाद बाज़ार में फ़िर छिड़ी रात में उन्होंने लता मंगेशकर के साथ गाया। तलत अजीज ने कई फिल्मों में गाया है और टीवी धारावाहिकों के लिए संगीत भी तैयार किया है साथ में उन्होंने फिल्मों, धारावाहिकों में अभिनय भी किया है।
इस बार अप्रैल महीने में देहरादून का मौसम गर्म होने की वजह से लोग हर शाम विरासत में सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ-साथ कुल्फी और शिकंजी का लुत्फ़ उठा रहे थे। इस बार विरासत में भारतीय व्यंजनों का बोलबाला रहा जिसमें मुख्य रुप से राजस्थानी व्यंजन, पंजाबी व्यंजन, उत्तराखंड के पहाड़ी पकवान, हैदराबाद की मशहूर बिरियानी के साथ-साथ भेलपुरी, शिकंजी कुल्फी, पानी पुरी एवं अन्य पकवान के स्टाल लगाए गए थे।
दो साल के लॉकडाउन के बाद देहरादून में विरासत पहला ऐसा आयोजन था जहां लोगो को हर प्रकार की सुविधाएं मिल रही थी। विरासत में लोग मनोरजंन के साथ-साथ भारतीय संस्कृति से जुडे़ हुए वस्तुओं कि खरीदारी कर भी कर रहे थे एवं अपने परिवार के साथ शाम में दो पल सुकून के साथ बिता भी रहे थे।
भारतीय व्यंजनों में हैदराबादी बिरयानी एवं चिकन के कई प्रकार के व्यंजन युवाओं को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था वही हर शाम सैकड़ों की तादाद में लोग डिनर करने विरासत के प्रांगण में पहुंच रहे थे। विरासत में आपको बच्चे -बूढ़े सब अपने हाथ में कुल्फी लेकर घूमते नजर आ रहे थे।
इस बार विरासत में देहरादून वासियों को रंग-बिरंगे सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ-साथ बहुत कुछ देखने को मिला। कार्यक्रमों में मुख्य रूप से क्राफ्ट विलेज, फूड फेस्टिवल, क्लासिकल म्यूजिक एंड डांस, फोक म्यूजिक एंड डांस, कर्न्सट के साथ-साथ क्राफ्ट वर्क शॉप, विंटेज एंड क्लासिक कार एंड बाइक रैली एवं क्विज आदि कार्यक्रम प्रमुख्य रूप से छाया रहा।
रीच की स्थापना 1995 में देहरादून में हुई थी, तबसे रीच देहरादून में विरासत महोत्सव का आयोजन करते आ रहा है। उदेश बस यही है कि भारत की कला, संस्कृति और विरासत के मूल्यों को बचा के रखा जाए और इन सांस्कृतिक मूल्यों को जन-जन तक पहुंचाया जाए। विरासत महोत्सव कई ग्रामीण कलाओं को पुनर्जीवित करने में सहायक रहा है जो दर्शकों के कमी के कारण विलुप्त होने के कगार पर था। विरासत हमारे गांव की परंपरा, संगीत, नृत्य, शिल्प, पेंटिंग, मूर्तिकला, रंगमंच, कहानी सुनाना, पारंपरिक व्यंजन, आदि को सहेजने एवं आधुनिक जमाने के चलन में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और इन्हीं वजह से हमारी शास्त्रीय और समकालीन कलाओं को पुणः पहचाना जाने लगा है।